Facebook id account kaise banaye kuch hi minto me

Facebook id account kaise banaye kuch hi minto me

Facebook ek soical site hai jiske baare jayada tar log jante hai Facebook pe aap apne fr se jud sakte hai aap apni baat ko sabhi samne rakh sakte hai

Aap agar kahani joke shayari likhte hai to aap yaha share bhi kar sakte hai...


facebook ek bahot hi achcha sadhan hai apni baat dusro se khane ka aaj Facebook se caroro log jude hai .
Aaiye jante hai Facebook id kaise banaye kuch hi minto me

Setp by setp

Facebook id banar ke liye aap ke  . Gmail. Id ho chahiye  agar nhi hai to aap apni mobile no se bhi bana sakte hai.   

Brawsr me jaye  typ kare .Facebook sing up
Ab ek page open hoga
Usme 
Aapko create new Account  pe click kare ..ab ek page aur open hoga..

Fb page banana hai aap ko yaha click kare

Sing up  for Facebook
(1)yaha aapko apna name likhna hai

(2)yaha aap ko .apna surname likhna hai

(3)yaha aapko apna phone no ya gmail id dalni hai

(4)yaha aapkp Gender select karna hai matalb aap ladki hai ya ladka ..male  and female


(5)yaha aapko  apni janm tarikh likhni hai.

(6)ab aapko apna koi bhi password chun le aur yaha likhe.

(7)ab aapko .. sing up pe click kar de ..

Ab ek page aur khulega verify karne ke liye..

aapke mobile ya gmail. Me verify code gya ho ga aap us code verify jaha likha huwa waha dale aur usi ke niche click kar de

Lijiye aapki id ban kar taiyar hai ab aap apne fr ko Facebook pe dhund sakte hai un se chat kar sakte hai ..
Dosto aap ko ye post kaisi lagi hame comment kar ke jarur bataye..thankd

nih sandeh desh me jayada hindu mare ja rahe hai

nih sandeh desh me jayada hindu mare ja rahe hai

निसंदेह देश मे हिंदू ज्यादा मारे जा रहे हैं ज्यादा क्रूरता से मारे जा रहे हैं, उनका मुद्दा उठना चाहिये. पर वो मारे जाने वाले हिंदू जो सबसे ज्यादा मारे जा रहे हैं वो दलित हैं. और मारने वाले मुसलमान नही हैं देश का सबसे बडा सामाजिक अपराधी वर्ग हैं. उठाइये मुद्दा सबका.
या सिर्फ मुस्लिम से बहुजन लडाने के लिये बस उतने ही केस देखेंगे ताकि दलितो को मारने पर आपका एकाधिकार बना रहे? और साथ मे इनके लडने से सत्ता पर आपका एकाधिकार बना रहे?
आप हिंदुओ को मारने के खिलाफ लड रहे हैं या हिंदुओ को मारने पर सवर्णो के एकाधिकार के लिये? 2-4% परसेंट भी किसी और के हाथ बरदाश्त नही है आपको?
जो भी हैं सबका मुद्दा उठाइये. क्रिमिनल का धर्म देखकर मुद्दे उठायेंगे तो संदेह बढेगा कि आपको हत्याये रोकना है या हत्याओ पर एकाधिकार चाहिये
देश की पुलिस व्यवस्था को इतना मजबूत कीजिये, उसमे जाति धर्म से निर्पेक्ष लोगो की ही भरती हो ताकि मर्डर/क्राइम रुके, हर मर्डर मे विक्टिम को न्याय हो, बिना पुलिस की जाति/धर्म का एडवांटेज क्रिमिनल को मिले
पुलिस कमजोर रखकर एक निजी गिरोह को मजबूत करने का तर्क संदेह पैदा करता है कि आप हत्याये रोकना नही हत्याओ पर एकाधिकार चाहते हैं
#हर साल लाखो दलितो का पलायन
#हर साल 50 हजार से ज्यादा दलित हत्याये/उत्पीडन केसेज

facebook pe चंद्र भानु यादव की कलम स

jaha banta hai la off nature yani Qudrat ka kanoon?


कुदरत के कानूनों के बारे में हम बहुत कुछ जानते हैं।
ज़मीन सूरज के गिर्द चक्कर लगा रही
है, चाँद जमीन के गिर्द चक्कर लगा रहा है, यह
कुदरत का कानून है। बकरी घास खाती है
जबकि शेर गोश्त खाता है, यह भी कुदरत का कानून
है। कुदरत के कानून पूरे यूनिवर्स में मौजूद हैं। इसी
के नतीजे में बादल बनते हैं और उनसे
पानी बरसता है। इसी के
नतीजे में मुर्गी के अण्डों में से
मुर्गी के ही बच्चे निकलते हैं और साँप
के अण्डों में से संपोलिये निकलते हैं। डर और गुस्से में इंसान
काँपने लगता है जबकि बहुत ज्यादा थक जाने पर उसमें आराम
की ख्वाहिश जाग उठती है। यह
भी कुदरत के ही कानून हैं।
खास बात ये है कि कोई भी कुदरत का कानून
अपनी मर्जी का मालिक नहीं
है। बल्कि हर कुदरत के कानून के पीछे मैथेमैटिक्स
की बड़ी बड़ी
समीकरणें छुपी हुई हैं। अगर हम
ग्रैविटी की बात करें तो उसके
पीछे मैथ का एक नियम ‘इनवर्स स्क्वायर ला’ मौजूद
है।
Ye bhi pade
इसी तरह इंसान का बच्चा इंसान और जिराफ का
बच्चा जिराफ हो इसके पीछे भी एक
निहायत मुश्किल गणित डी-एन-ए- कोडिंग
की शक्ल में मौजूद होती है। यानि कुदरत
के कानूनों के पीछे एक पूरी मैथेमैटिक्स
कुछ इस तरह मौजूद है जिसके बारे में जानने में साइंसदाँ अगर
पूरी जिंदगी गुजार दें तब भी
उसकी गहराई तक नहीं पहुंच सकते।
अब सवाल पैदा होता है यूनिवर्स में वह कौन सी
जगह है जहाँ ये निहायत मुश्किल व अहम कानून बनते हैं।
वह कौन सी जगह है जहां वजूद में आने से
पहले या वजूद में आने के बाद किसी
चीज का पूरा ज्ञान मौजूद है? 

उस जगह का नाम है अर्श । यहीं पर बनते हैं
कुदरत के कानून और यहीं पर हर मखलूक
की किस्मत का फैसला होता है। आईए समझते हैं
अर्श को कुरआन और हदीस के जरिये।
कुरआन में कई जगह पर अर्श और कुर्सी का
जिक्र है। जैसे कि
सूरे बक़रा आयत 255 : अल्लाह ही वह ज़ाते पाक
है कि उसके सिवा कोई माबूद नहीं। (वह) जिन्दा है
और सारे जहान का संभालने वाला है। उसको न ऊंघ
आती है न नींद। जो कुछ आसमानों में है
और जो कुछ ज़मीन में है उसी का है।
कौन ऐसा है जो बगैर उसकी इजाज़त के उसके पास
किसी की सिफारिश करे जो कुछ उनके सामने
मौजूद है और जो कुछ उनके पीछे है जानता है और
लोग उसके इल्म में से किसी चीज़ पर
भी अहाता नहीं कर सकते मगर वह
जिसे जितना चाहे। उसकी कुर्सी सब
आसमानों व ज़मीनों को घेरे हुए है और उन दोनों
की निगेहदाश्त उसपर कुछ भी
मुश्किल नहीं और वह
आलीशान बुजुर्ग व मरतबा है।
सूरे हदीद आयत 4 : और वही तो है
जिसने सारे आसमान व ज़मीन को छह दिन में पैदा किया
फिर अर्श पर आमादा हुआ जो चीज़
ज़मीन में दाखिल होती है और जो उससे
निकलती है और जो चीज़ आसमान से
नाजिल होती है और जो उसकी तरफ
चढ़ती है उसको मालूम है और तुम जहाँ
कहीं रहो वह तुम्हारे साथ है और जो कुछ
भी तुम करते हो अल्लाह उसे देख रहा है।
सूरे ताहा आयत 5 : वही रहमान है जो अर्श पर
आमादा और मुस्तईद है
इन आयतों से कुछ ऐसा मालूम होता है कि अर्श कोई
ऐसी जगह है जहाँ अल्लाह मौजूद है। और
कुर्सी से उसे कुछ ऐसा लगता है जैसे यह अल्लाह
के बैठने की गद्दी है जहाँ वह
किसी दुनियावी बादशाह की
तरह विराजमान है। लेकिन यह बात पूरी तरह
गलत है। क्योंकि उसी ने (अल्लाह ने) जगह और
मकान (स्पेस और डाइमेंशन) बनाये हैं। वह तो उस वक्त
भी मौजूद था जब कि कोई जगह मौजूद न
थी। इसलिये वह अर्श पर मौजूद है और
कुर्सी पर बैठा है यह सोचना हरगिज जायज़
नहीं।
तो फिर अर्श और कुर्सी की असलियत
क्या है? इसको समझने के लिये गौर करते हैं इमाम जाफर सादिक
(अ-स-) के कौल पर जो शेख सुद्दूक (र.) की किताब
‘अल तौहीद’ में मौजूद है।
इमाम जाफर सादिक (अ-स-) ने फरमाया अर्श और
कुर्सी दोनों गैब में हैं (यानि आँखों को दिखाई
नहीं देते)। अर्श मुल्क पर हावी है
और यह मुल्क अशिया में वाके (happen) होने वाले हालात व
अहवालों का मुल्क है। फिर यह कि अर्श मुत्तसिल होने में
कुर्सी से बिल्कुल बेनजीर व यगाना है।
क्योंकि वह दोनों गय्यूब के दरबाये कबीरा से हैं और
वह दोनों भी गैब हैं। गैब में दोनों साथ साथ हैं क्योंकि
कुर्सी उस गैब का जाहिरी दरवाजा है जो
मतला ईजाद व इब्तिदा है और जिससे तमाम अशिया मौजूद हुईं।
और अर्श वह दरे बातिन है जिसमें हालत व कैफियत, वजूद,
कद्र, हद और ऐन व मशीयत और सिफते इरादत का
इल्म है और अलफाज़ व हरकात और तर्क का इल्म है और
इख्तिताम और इब्तिदा का इल्म है पस ये दोनों इल्म के
करीबी दरवाजे हैं क्योंकि
मुल्के अर्श मुल्के कुर्सी से सिवा है और इस का
इल्म कुर्सी के इल्म से ज्यादा गैब में (छुपा हुआ)
है तो इसी वजह से कुरआन में कहा गया है
रब्बिल अर्शिल अज़ीम (अल्लाह महान अर्श का
रब है।) यानि इस की सिफत कुर्सी
की सिफत से ज्यादा अज़ीम है। और
वह दोनों इस वजह से एक साथ हैं। अर्श कुर्सी
का हमसाया इस तरह हो गया कि उस में कैफियत व अहवाल का
इल्म है। और उस में अबवाब बिदा व मुकामात व मवाज़ा जाहिर हैं।
और उन की इस्लाह व दुरुस्ती
की हद है। ये दोनों पड़ोसी हैं। इन दोनों
में से एक ने अपने साथी को बतौर सिर्फ कलाम उठा
रखा है।


आसान अलफाज़ में कहा जाये तो अर्श वह जगह है जहाँ
चीजों की हालत, उनकी
शुरुआत व खात्मा, उनका मशीनरी सिस्टम,
यूनिवर्स की बनावट जैसी हर
चीज़ का ज्ञान मौजूद है। यहीं पर
शब्द पैदा होते हैं और यहीं मख्लूकात
की किस्मत में तब्दीली
होती है। यह चीज़ों की
खिलकत का शुरूआती मरकज़ है और पूरे यूनिवर्स का
कण्ट्रोल रूम है.
दूसरी तरफ कुर्सी एक तरह का दरवाज़ा
है जहाँ से यह ज्ञान निकलकर अपने वक्त पर सामने आता
है। दुनिया में जो कुछ भी होता है चीजें
और जानदार जिस तरह भी बिहेव करते हैं उसका
इल्म इसी कुर्सी के जरिये अर्श से
निकलकर जाहिर होता है। यहीं पर तमाम कुदरत के
कानूनों का भी इल्म मौजूद है और यहीं
पर ये कानून खल्क भी होते रहते हैं जो इस तमाम
कायनात को चला रहे होते हैं।
इन कानूनों का खालिक अल्लाह है। लेकिन ये सोचना गलत है कि
अल्लाह अर्श पर बैठकर इन कानूनों की खिलकत
करता रहता है। अल्लाह के वजूद से कोई जगह
खाली नहीं। हकीकत ये है
कि वह तमाम जगहों और वक्त का खालिक है।...

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galat fahmiyo ka sikar islaam: MUDRA RAKSHAS Misconceptions about Islam:MUDRA RAKSHAS


मुद्राराक्षस जी की तार्रुफ़
की कोई आवश्यकता नहीं है. आज
लखनऊ के इस महान शख्सियत को कौन नहीं
जानता. संक्षिप्त में इनके बारे में जानने के लिए यहाँ click kare
आज पेश है उन्ही के द्वारा लिखा गया एक लेख जो
वर्तमान में इस्लाम धर्म के बारे में फ़ैल चुकी
गलतफहमियों के निवारण की ओर इशारा कर रहा
है...
इस्लाम और ईसाइयत, इन दोनों ही धार्मिक आस्थाओं
की दुनिया बहुत बड़ी है और भारत में
इनका लंबा इतिहास है। ईसाइयत तो भारत में हजरत ईसा के मारे
जाने के कुछ समय बाद कदम रख चुकी थी
लेकिन यहां इस्लाम का इतिहास भी छोटा
नही है। अपने यहां लंबे मुस्लिम शासन
की खास बात हमें याद रखनी चाहिए कि
इस दौर में मुस्लिम शासकों ने देश को इस्लामी
साम्राज्य में बदलने की कोशिश कभी
नही की । जिस औरंगजेब को
कट्टरपंथी मुसलमान के रूप में अक्सर चिनित किया जाता
है, उस बादशाह ने भी कई मंदिरों को अनुदान दिए थे
जिसके ऐतिहासिक दस्तावेज आज भी मौजूद है ।
विख्यात संस्कृत काव्यशास्त्री पंडितराज जगन्नाथ
इसी बादशाह के आश्रम में थे और उन्होंने मुसलमान
शहजादी से शादी भी
की थी । ध्यान रहे तत्कालीन
वैयाकरण अप्पय दीक्षित ने पंडितराज को
‘यवनीसंसर्गदूषित’ कहा था, पर औरंगजेब ने
अपनी बहन से विवाह करने वाले पंडितराज पर
कभी इस्लाम कुबूल करने के लिए जोर
नही डाला । यह बड़ी अजीब
बात है कि भारत में इस्लाम के इतने लंबे दौर के बावजूद इस्लाम
की वह मानवीय तस्वीर
सामने नही लायी जा सकी
जिसकी वजह से दुनिया में एक तिहाई से ज्यादा मुल्कों
के अवाम ने इसे पसंद किया है। यह मामूली बात
नही है कि जिस महापुरुष के जीवनकाल
में ही सिर्फ मक्का मदीना
ही नही, आसपास का बड़ा भू-भाग
उसका स्वामित्व स्वीकार कर चुका हो,
उसकी मृत्यु के समय घर में कुछ खाने को न हो और
अंतिम संस्कार के लिए परिवार खाली हाथ
ही नही, कर्जदार भी हो ।
जो शख्स जिन्दगी भर किसी गद्दे पर
नही, खजूर की चटाई पर सोया हो, वह
घोषणा करे कि वह आम आदमी ही माना
जाए। उसकी कब्र पर आज भी कोई सिर
नही झुकाता। जब शहर के बाहर खाई खुद
रही होती है तो वह शख्स खुद
भी फावड़ा-कुदाल चलाता है और मलबा ढोता है । उसके
साथ खुदाई कर रहा एक व्यक्ति भूख से परेशान होकर कहता
है कि उसने पेट पर पत्थर बांध रखा है तो हजरत मुहम्मद
कहते है, उन्होंने दो पत्थर बांध रखे है। मगर इससे ज्यादा
उलझन यह देखकर होती है कि सबसे ज्यादा
गलतफहमियां कुरआन को लेकर बनी
रही हैं. इस किताब की भी
सही तस्वीर जाने क्यों गैर मुस्लिमों तक
नही पहुंची है । एक किताब पंडित
सुन्दर लाल ने जरूर लिखी थी जो निश्चय
ही हिंदी में एक बेहतरीन
किताब है लेकिन वह बहुत पहले लिखी गई
थी और अब दुर्लभ है। याद रखना चाहिए कि
हजरत मुहम्मद ऐसे समय में हुए थे जब इंसानों को गुलाम
बनाना, खरीदना-बेचना आम बात हुआ
करती थी। अपने समय की
इस परंपरा को चुनौती देते हुए एक
इसी नस्ल के गुलाम बिलाल को बराबरी का
दर्जा ही नही दिया बल्कि उन्हें पहला
मुअज्जन भी नियुक्त किया था। एक
हदीस के अनुसार वे कहते थे कि जन्नत में बिलाल
उनसे आगे होंगे। दरअसल एक गुलाम को उन्होंने
बराबरी का जो दर्जा दिया, वह उनके इस सिद्धान्त का
नतीजा था जिसके अनुसार उन्होंने आखिरी
हज के वक्त अपने भाषण में कहा था- सभी इंसान
आदम की संतान हैं और सब बराबर है ।
किसी अरबी को गैर-अरबी
पर, गैर-अरबी को अरबी पर, काले को गोरे
पर और गोरे पर काले को श्रेष्ठता प्राप्त नही है ।
जबकि हम सभी जानते है कि यूरोप की
दुनिया में पहली बार टामस पेन ने
अठारहवी सदी में सभी
मनुष्यों की बराबरी का घोषणापत्र
जारी किया था। इसकी बुनियादी
स्थापना हजरत मुहम्मद ने टामस पेन से लगभग बारह
सदी पहले ही घोषित कर दी
थी। मानवता के इतिहास में यह एक बहुत
बड़ी प्रगतिशील पहल थी
खास तौर से उस वक्त जब नस्ली श्रेष्ठता के सवाल
पर दुनिया भर में नफरत और हिंसा आम थी। जहां
दुनिया में सुख-सम्पत्ति बटोरने और लूटने की
जबर्दस्त आपाधापी होती
रही है , हजरत मुहम्मद ने स्पष्टता से हजरत
उस्मान से कहा था- आदम के बेटे को किसी
चीज पर कोई हक नही है सिवा रहने
के लिए घर, बदन ढकने को कपड़ा, सूखी
रोटी और पानी । यही वजह
है कि उन्होंने कभी कोई सुख-सुविधा की
चीज अर्जित नही की।
किसी भी समाज में सूदखोरी
गरीब आदमी का खून चूसने का सबसे
भयानक तरीका होता है। हजरत मुहम्मद का
समाजी अर्थव्यवस्था में यह बेहद
क्रांतिकारी कदम था कि उन्होंने सूदखोरी को
नाजायज ठहराया । ब्याज छोड़ने और सिर्फ मूलधन वापस लेने
की बात कुरआन में भी कही
गयी है .
आज जिस इस्लाम को दुनियां में आतंक से जोड़ा जा रहा है उसके
विचारों को व्यवस्थित रूप से पारिभाषित करने की ज़रुरत
है.
-मुद्राराक्षस
(यह लेख दैनिक अख़बार राष्ट्रीय सहारा के लखनऊ
एडिशन में दिनांक 25-जुलाई-2010 को छपा था)
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muslmano ki naitikta aur waiswik naitik wayawastha MUSLIMMANNERS



.....मानव के अन्दर नैतिकता की भावना एक स्वाभाविक
भावना है जो कुछ गुणों को पसन्द और कुछ दूसरे गुणों को नापसन्द
करती है। यह भावना व्यक्तिगत रूप से लोगों में भले
ही थोड़ी या अधिक हो किन्तु सामूहिक
रूप से सदैव मानव-चेतना ने नैतिकता के कुछ मूल्यों को समान रूप से
अच्छाई और कुछ को बुराई की संज्ञा दी
है। सत्य, न्याय, वचन-पालन और अमानत को सदा
ही मानवीय नैतिक सीमाओं में
प्रशंसनीय माना गया है और कभी कोई
ऐसा युग नहीं बीता जब झूठ, जु़ल्म,
वचन-भंग और ख़ियानत को पसन्द किया गया हो ।
हमदर्दी, दयाभाव, दानशीलता और उदारता
को सदैव सराहा गया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी
और संकीर्णता को कभी आदर योग्य
स्थान नहीं मिला। धैर्य, सहनशीलता,
स्थैर्य, गंभीरता, दृढ़संकल्पता व बहादुरी
वे गुण हैं जो सदा से प्रशंसनीय रहे हैं। इसके
विपरीत धैर्यहीनता, क्षुद्रता, विचार
की अस्थिरता, निरुत्साह और कायरता पर
कभी भी श्रद्धा-सुमन नहीं
बरसाए गए। आत्मसंयम, स्वाभिमान, शिष्टता और
मिलनसारी की गणना सदैव उत्तम गुणों में
ही होती रही और
कभी ऐसा नहीं हुआ कि भोग-विलास,
ओछापन और अशिष्टता ने नैतिक गुणों की
सूची में कोई जगह पाई हो। कर्तव्यपरायणता,
विश्वसनीयता, तत्परता एवं उत्तरदायित्व
की भावना का सदा सम्मान किया गया तथा कर्तव्य
विमुख, धोखाबाज़, कामचोर तथा ग़ैर ज़िम्मेदार लोगों को
कभी अच्छी नज़र से नहीं
देखा गया। इसी प्रकार सामूहिक जीवन के
सदगुणों व दुर्गुणों के मामले में भी मानवता का फ़ैसला
एक जैसा रहा है। प्रशंसा की दृष्टि से
वही समाज देखा गया है जिसमें अनुशासन और
व्यवस्था हो, आपसी सहयोग तथा सहकारिता हो,
आपसी प्रेमभाव तथा हितचिन्तन हो, सामूहिक न्याय
व सामाजिक समानता हो । आपसी फूट, बिखराव,
अव्यवस्था, अनुशासनहीनता, मतभेद, परस्पर
द्वेषभाव, अत्याचार और असमानता की गणना सामूहिक
जीवन के प्रशंसनीय लक्ष्णों में
कभी भी नहीं
की गई। ऐसा ही मामला चरित्रा
की अच्छाई और बुराई का भी है।
चोरी, व्यभिचार, हत्या, डकैती,
धोखाधड़ी और घूसख़ोरी कभी
सत्कर्म नहीं माने गए। अभद्र भाषण,
उत्पीड़न, पीठ पीछे बुराई,
चुग़लख़ोरी, ईर्ष्या, दोषारोपण तथा उपद्रव फैलाने को
कभी ‘पुण्य’ नहीं समझा गया। मक्कार,
घमंडी, आडम्बरवादी,
कपटाचारी, हठधर्म और लोभी व्यक्ति
कभी भले लोगों में नहीं गिने गए ।


इसके
विपरीत माँ-बाप की सेवा, संबंधियों
की सहायता, पड़ोसियों से अच्छा व्यवहार, मित्रों से
हमदर्दी, निर्बलों की हिमायत, अनाथों
और बेसहारों की देखरेख, रोगियों की सेवा
तथा पीड़ितों की मदद सदैव
नेकी समझी गई है। स्वच्छ चरित्र वाला
मधुर-भाषी, विनम्र-भाव व्यक्ति और सब
की भलाई चाहने वाले लोग सदा आदरणीय
रहे। मानवता उन्हीं लोगों को अपना उत्तम अंश
मानती रही है जो सच्चे और शुभ-
चिन्तक हों, जिन पर हर मामले में भरोसा किया जा सके, जिनका
बाहर और भीतर एक समान हो, जिनकी
कथनी करनी में समानता हो, जो अपने
हितों की प्राप्ति में संतोष करने वाले और दूसरों के
अधिकारों और हितों को देने में उदार हृदय हों, शान्तिपूर्वक रहें
और दूसरों को शान्ति प्रदान करें, जिनके व्यक्तित्व से प्रत्येक को
‘भलाई’ की आशा हो और किसी को बुराई
की आशंका न हो।
इससे मालूम हुआ कि मानवीय नैतिकताएं वास्तव में
ऐसी सर्वमान्य वास्तविकताएँ हैं जिन्हें
सभी लोग जानते हैं और सदैव जानते चले आ रहे
हैं। अच्छाई और बुराई कोई ढकी-छिपी
चीज़ें नहीं हैं कि उन्हें
कहीं से ढूँढ़कर निकालने की आवश्यकता
हो। वे तो मानवता की चिरपरिचित चीज़ें हैं
जिनकी चेतना मानव की प्रकृति में समाहित
कर दी गई है। यही कारण है कि
क़ुरआन अपनी भाषा में नेकी और भलाई को
‘मारूफ़’ (जानी-पहचानी हुई
चीज़) और बुराई को ‘मुनकर’ (मानव की
प्रकृति जिसका इन्कार करे) के शब्दों से अभिहित करता है।
अर्थात् भलाई और नेकी वह चीज़ है
जिसे सभी लोग भला जानते हैं और ‘मुनकर’ वह है
जिसे कोई अच्छाई और भलाई के रूप में नहीं जानता।
इसी वास्तविकता का कु़रआन दूसरे शब्दों में इस प्रकार
वर्णन करता है:
‘‘मानवीय आत्मा को ख़ुदा ने भलाई और बुराई का ज्ञान
अंतः प्रेरणा के रूप में प्रदान कर दिया है।’’ (9:18)
अब प्रश्न यह है कि यदि नैतिकता की भलाई और
बुराई जानी-पहचानी चीज़ें हैं
और दुनिया सदैव कुछ गुणों के अच्छा और कुछ के बुरा होने पर
एकमत रही है तो फिर दुनिया में ये भिन्न-भिन्न नैतिक
व्यवस्थाएँ क्यों पाई जाती हैं? उनके बीच
अन्तर क्यों है? वह कौन-सी चीज़ है
जिसके कारण हम कहते हैं कि इस्लाम के पास
अपनी एक स्थायी नैतिक व्यवस्था है?
और ‘नैतिकता’ के संबंध में वास्तव में इस्लाम का विशिष्ट योगदान
(Contribution) क्या है जिसे उसकी ख़ास विशेषता
कहा जा सके?
इस विषय को समझने के लिए जब हम विश्व की
विभिन्न नैतिक प्रणालियों पर नज़र डालते हैं तो पहली
दृष्टि में ही जो अन्तर हमारे सामने आता है वह
यह है कि विभिन्न नैतिक गुणों को जीवन
की सम्पूर्ण व्यवस्था में लागू करने,
उनकी सीमा, स्थान और उपयोग निश्चित
करने तथा उनके उचित अनुपात के निर्धारित करने में ये सब प्रणालियाँ
परस्पर भिन्न हैं। अधिक गहराई से देखने पर इस अन्तर का
कारण यह प्रतीत होता है कि वास्तव में वह
नैतिकता की अच्छाई व बुराई का स्तर निर्धारित करने
तथा भलाई और बुराई के ज्ञान का स्रोत तय करने में भिन्न-भिन्न
मत रखते हैं। उनके बीच इस मामले में
भी मतभेद है कि आचारसंहिता की
क्रियान्वयन शक्ति (Authority) कौन-सी है जिसके
बल पर वह लागू की जा सके और वे कौन-से प्रेरक
तत्व हैं जो मनुष्य को इस क़ानून के पालन पर तैयार कर सकें।
जब हम इस मतभेद के कारणों की खोज लगाते हैं तो
अंततः यह वास्तविकता हम पर खुलती है कि वह
वास्तविक चीज़ जिसने इन सब नैतिक व्यवस्थाओं के
रास्ते अलग-अलग कर दिए हैं वह यह है कि उनके
बीच ब्रह्माण्ड की अवधारणा, विश्व में
मनुष्य की हैसियत तथा मानव-जीवन के
उद्देश्य के संबंध में मतभेद है। इसी मतभेद ने जड़
से लेकर शाखाओं तक उनकी आत्मा, उनवे$ स्वभाव
और उनके स्वरूप को एक-दूसरे से बिल्कुल अलग कर दिया है।
मानव-जीवन में मौलिक निर्णायक प्रश्न ये हैं कि इस
विश्व को कोई स्वामी है या नहीं? है तो
वह एक है या अनेक हैं? उसके गुण क्या हैं? हमारे साथ
उसका संबंध क्या है? उसने हमारे मार्गदर्शन का कोई प्रबंध
किया है या नहीं? हम उसके सामने
उत्तरदायी हैं या नहीं?
उत्तरदायी हैं तो किस बात के? और हमारे
जीवन का लक्ष्य और परिणाम क्या है जिसे सामने
रखकर हम कार्य करें? इन प्रश्नों का उत्तर जिस प्रकार का होगा
उसी के अनुसार जीवन-व्यवस्था
बनेगी और उसी के अनुरूप नैतिक नियमों का
निर्माण होगा।
इस संक्षिप्त आलेख में यह बात कठिन है कि विश्व
की विभिन्न जीवन-प्रणालियों का विश्लेषण
करके यह बताया जाए कि उनमें किस-किस ने इन प्रश्नों का कौन-सा
उत्तर अपनाया है और उस उत्तर ने उसके स्वरूप और मार्ग
निर्धारण पर क्या प्रभाव डाला है? यहाँ केवल इस्लाम के संबंध में
बतलाया जाएगा कि वह इन प्रश्नों का क्या उत्तर देता है और
उसके आधार पर किस विशेष प्रकार की नैतिक
व्यवस्था अस्तित्व में आती है ।





इस्लाम का जवाब यह है कि इस सृष्टि का स्वामी
‘ईश्वर’ है और वह एक ही स्वामी
है। उसी ने इस सृष्टि को पैदा किया। वही
इसका एकमात्र प्रभु, शासक और पालनहार है। उसी
के आदेशानुपालन के कारण यह सारी व्यवस्था चल
रही है। वह तत्वदर्शी,
सर्वशक्तिमान है, प्रत्यक्ष और परोक्ष का जानने वाला है।
सभी दोषों, भूलों, निर्बलताओं तथा कमियों से मुक्त है।
उसकी व्यवस्था में लाग लपेट या टेढ़ापन बिल्कुल
नहीं है। मनुष्य उसका जन्मजात बन्दा (दास) है।
उसका कार्य यही है कि वह अपने स्रष्टा
की बन्दगी (गु़लामी) और
आज्ञापालन करे। उसके जीवन का लक्ष्य ईश्वर के
प्रति पूर्ण समर्पण और आज्ञापालन है जिसकी
पद्धति निर्धारित करना मनुष्य का अपना काम नहीं
बल्कि उस ईश्वर का काम है जिसका वह दास है। ईश्वर ने
उसके मार्गदर्शन हेतु अपने दूत (पैग़म्बर) भेजे हैं और ग्रंथ
उतारे हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी
जीवन-व्यवस्था इसी
ईश्वरीय मार्गदर्शन के स्रोत से प्राप्त करे। मनुष्य
अपने सभी कार्यकलापों के लिए ईश्वर के सामने
उत्तरदायी है और इस उत्तरदायित्व के संबंध में उसे
इस लोक में नहीं बल्कि परलोक में हिसाब देना है।
वर्तमान जीवन तो वास्तव में परीक्षा
की अवधि है इसलिए यहां मनुष्य के सम्पूर्ण
प्रयास इस लक्ष्य की ओर केन्द्रित होने चाहिएँ कि
वह परलोक की जवाबदेही में अपने
प्रभु के समक्ष सफल हो जाए। परलोक की इस
परीक्षा में मनुष्य अपने पूरे अस्तित्व के साथ
सम्मिलित है। उसकी सभी शक्तियों एवं
योग्यताओं की परीक्षा है। पूरे विश्व
की जो चीज़ें भी मनुष्य के
सम्पर्क में आती हैं उसके बारे में निष्पक्ष जांच
होती है कि मनुष्य ने उन चीज़ों के साथ
कैसा मामला किया और यह जांच करने वाली वह सत्ता
है जिसने धरती के कण-कण पर, हवा और
पानी पर, विश्वात्मक तरंगों पर और ख़ुद इन्सान के
दिल व दिमाग़ और हाथ-पैर पर, उसकी गतिविधियों का
ही नहीं बल्कि उसके विचारों तथा इरादों
तक का ठीक-ठीक रिकार्ड उपलब्ध कर
रखा है ।
यह है वह उत्तर जो इस्लाम ने जीवन के मूलभूत
प्रश्नों का दिया है। सृष्टि और मनुष्य के संबंध में उक्त अवधारणा
उस वास्तविक और परम कल्याण के लक्ष्य को निर्धारित कर
देती है जिसे प्राप्त करने का भरपूर प्रयास मनुष्य को
करना चाहिए, और वह है ईश्वर की प्रसन्नता।
यही वह मानदंड है जिस पर इस्लाम
की नैतिक व्यवस्था में किसी कार्य
शैली को परखकर यह निर्णय किया जाता है कि वह
‘भला’ है या ‘बुरा’। इस के निर्धारण से नैतिकता को वह
धुरी मिल जाती है जिसके चारों ओर
सम्पूर्ण नैतिक जीवन घूमता है और
उसकी स्थिति लंगर रहित जहाज़ की-
सी नहीं रहती कि हवा के
झोंके और समुद्र की लहरों के थपेड़े उसे इधर-उधर
दौड़ाते फिरें। यह निर्धारण एक केन्द्रीय उद्देश्य
सामने रखता है जिसके परिणामस्वरूप जीवन में
सभी नैतिक गुणों की उचित
सीमाएँ उचित स्थान और उपयुक्त व्यावहारिक रूप से
निश्चित हो जाते हैं। हमें वह स्थायी नैतिक मूल्य
मिल जाते हैं जो परिवर्तशील परिस्थिति में
भी अपनी जगह अटल रह सकें। फिर
सबसे बड़ी बात यह है कि ईश-प्रसन्नता का
लक्ष्य प्राप्त कर लेने से नैतिकता को एक उच्चतम परिणाम मिल
जाता है जिसके फलस्वरूप नैतिक उत्थान की संभावनाएँ
असीम हो जाती हैं और
किसी चरण में भी स्वार्थपरता का प्रदूषण
उसे दूषित नहीं कर सकता।
मापदंड प्रदान करने के साथ इस्लाम अपने इसी विश्व
तथा मानव अवधारणा पर आधारित नैतिक सौन्दर्य तथा असौन्दर्य के
ज्ञान का एक स्थायी स्रोत भी हमें
प्रदान करता है। उसने हमारे नैतिकता के ज्ञान को मात्रा
हमारी बुद्धि या इच्छाओं या अनुभवों अथवा
मानवीय ज्ञान के भरोसे नहीं छोड़ा है कि
यदि ये चीजें अपने निर्णय बदल दें तो हमारे नैतिक
सिद्धांत भी बदल जाएँ और उन्हें कोई स्थायित्व न
मिल सके, बल्कि इस्लाम ने हमें दो निश्चित स्रोत (ईशग्रंथ और
ईशदूत का आदर्श) प्रदान किए हैं जिससे हमें हर युग तथा
प्रत्येक परिस्थिति में नैतिक निर्देश प्राप्त होते हैं। ये निर्देश ऐसे
व्यापक हैं कि घरेलू जीवन के छोटे से छोटे मामलात से
लेकर बड़ी-बड़ी
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समस्याओं तक
जीवन के हर पक्ष और प्रत्येक विभाग में वे हमारा
मार्गदर्शन करते हैं। उनके अन्दर जीवन
संबंधी विषयों पर नैतिक सिद्धांतों का वह व्यापक
निरूपण (Widest Application) पाया जाता है जो
किसी स्तर पर किसी अन्य साधन
की आवश्यकता ही प्रतीत
नहीं होने देता।
सृष्टि व मानव संबंधी इस्लाम की
इसी अवधारणा में वह क्रियान्वयन शक्ति
(Sanction) भी मौजूद है जिसका होना नैतिक क़ानून
को लागू करने के लिए ज़रूरी है और वह है ईशभय,
परलोक की पूछताछ का डर और शाश्वत भविष्य
की असफलता का ख़तरा। यद्यपि इस्लाम एक
ऐसी शक्ति और जनमत (Public Opinion)
भी तैयार करना चाहता है जो सामाजिक
जीवन में व्यक्तियों एवं समुदायों को नैतिक नियमों
की पाबन्दी पर विवश करने
वाली हो और एक ऐसी राजनैतिक
व्यवस्था भी बनाना चाहता है जिसके द्वारा नैतिकता
संबंधी आचार-संहिता बलपूर्वक लागू करे परन्तु इसमें
बाह्य दबाव की अपेक्षा आन्तरिक प्रेरणा अधिक
शक्तिशाली हो जो ईश्वर और परलोक के विचार पर
आधारित हो। नैतिकता संबंधी निर्देश देने से पहले
इस्लाम आदमी के दिल में यह बात बिठाता है कि तेरा
मामला वास्तव में उस अल्लाह के साथ है जो हर समय हर
जगह तुझे देख रहा है। तू दुनिया भर से छिप सकता है मगर
उससे नहीं नहीं छिप सकता। दुनिया भर
को धोखा दे सकता है मगर उसे धोखा नहीं दे सकता।
दुनिया भर से भाग सकता है मगर उसकी पकड़ से
बचकर कहीं नहीं जा सकता। दुनिया
केवल तेरा बाहरी रूप देख सकती है
मगर ईश्वर तेरी नीयत तथा तेरे इरादों तक
को देख लेता है। दुनिया के थोड़े-से जीवन में तू जो चाहे
कर ले मगर तुझे अंततः मरकर उसकी अदालत में
उपस्थित होना है जहां वकालत, रिश्वत, सिफ़ारिश,
झूठी गवाही, धोखा कुछ भी न
चल सकेगा और तेरे भविष्य का निष्पक्ष फ़ैसला हो जाएगा । इस
विश्वास के द्वारा इस्लाम मानो हर व्यक्ति के दिल में पुलिस
की एक चौकी स्थापित कर देता है जो
अन्दर से उसको अदेश पालन पर विवश करती है ।
चाहे बाहर उन आदेशों की पाबन्दी कराने
वाली पुलिस, अदालत और जेल मौजूद हो या न हो।
इस्लाम के नैतिक क़ानून के पीछे यही
वास्तविक शक्ति है जो उसे लागू कराती है। जनमत
और शासन का समर्थन भी इसे प्राप्त हो तो कहना
ही क्या! वरना मात्रा यही ईमान और
विश्वास मुसलमानों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से
सीधा चला सकता है। शर्त यही है कि
सच्चा ईमान दिलों में बैठा हुआ हो।
संसार और इन्सान के संबंध में यह इस्लामी दृष्टिकोण
वे प्रेरणाएँ भी प्रस्तुत करता है जो इन्सान को नैतिक
नियमों पर चलने के लिए उभारती हैं। इन्सान का ईश्वर
को अपना ईश्वर मान लेना और उसके प्रति समर्पण को अपना
जीवन लक्ष्य बनाना और उसकी
प्रसन्नता को अपना जीवन लक्ष्य ठहराना पर्याप्त
प्रेरक है कि वह उन आदेशों का पालन करे जिनके विषय में उसे
विश्वास हो कि वे ईश्वरीय आदेश हैं। इसके साथ
परलोक पर विश्वास की यह धारणा एक दूसरा
शक्तिशाली प्रेरक है कि जो व्यक्ति
ईश्वरीय निर्देशों का पालन करेगा उसके लिए परलोक के
शाश्वत जीवन में एक उज्जवल भविष्य निश्चित है,
चाहे दुनिया के इस अस्थायी जीवन में उसे
कितनी ही कठिनाइयों, कष्टों और हानियों
को झेलना पड़े। इसके विपरीत जो यहां ईश्वर
की अवज्ञा करेगा वह परलोक में स्थायी
दंड भोगेगा, चाहे यहां के थोड़े दिनों के जीवन में वह
कितने ही मज़े लूट ले। यह आशा और यह भय
अगर किसी के दिल में घर कर जाए तो वह
ऐसी परिस्थिति में भी बुराई से दूर रह
सकता है जहां बुराई अत्यंत लुभावनी या लाभप्रद
हो।
इस विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि
इस्लाम के पास सृष्टि के संबंध में अपना एक दृष्टिकोण है,
अच्छाई और बुराई के अपने पैमाने हैं। नैतिकता के ज्ञान के अपने
स्रोत हैं, अपनी क्रियान्वयन शक्ति है और वह
अपना प्रेरक बल अलग रखता है। उन्हीं
की सहायता से इस्लाम परिचित मान्य नैतिक सिद्धांतों को
अपने मूल्यों के अनुसार व्यवस्थित करके जीवन के
सभी क्षेत्रों में लागू करता है। इसी
आधार पर यह कहना बिल्कुल सही है कि इस्लाम
अपनी एक पूर्ण एवं स्थायी नैतिक
व्यवस्था रखता है। इस व्यवस्था की विशेषताएँ वैसे
तो बहुत हैं मगर उनमें से तीन बहुत महत्वपूर्ण
हैं जिन्हें उसका महत्वपूर्ण योगदान कहा जा सकता है।
पहली विशेषता यह है कि वह ईश-प्रसन्नता को
लक्ष्य बनाकर नैतिकता के लिए एक ऐसा उच्च मानदंड प्रस्तुत
करता है, जिसके कारण नैतिक उत्थान की कोई अंतिम
सीमा नहीं रहती। ज्ञान के
एक स्रोत का निर्धारण करके नैतिकता को ऐसा स्थायित्व प्रदान करता
है कि जिसमें उन्नति की तो संभावना है मगर
अनावश्यक परिवर्तन की नहीं। ईशभय
के द्वारा नैतिक नियतों के लागू करने के लिए वह बल देता है जो
बाहरी दबाव के बग़ैर भी इन्सान से
उसकी पाबन्दी कराता है। ईश्वर और
परलोक पर विश्वास वह प्रेरक शक्ति प्रदान करता है जो इन्सान
को स्वयमेव नैतिक नियमों का अनुसरण करने की
चाहत और स्वीकृति पैदा करता है।
दूसरी विशेषता यह है कि इस्लाम अनावश्यक उर्वरता
से काम लेकर कुछ निराली नैतिकता को प्रस्तुत
नहीं करता और न मानव के प्रमुख नैतिक सिद्धांतों में
से कुछ को घटाने-बढ़ाने का प्रयास करता है। वह
उन्हीं नैतिक उसूलों को लेता है जो जाने-पहचाने हैं
और उनमें से कुछ को नहीं बल्कि सबको लेता है।
फिर जीवन में पूर्ण संतुलन के साथ प्रत्येक
की स्थिति, स्थान और उपयोग तय करता है और
उन्हें इतने व्यापक रूप से लागू करता है कि व्यक्तिगत आचरण,
पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन,
राजनीति, कारोबार, बाज़ार, शिक्षण संस्था, न्यायालय,
पुलिस लाइन, छावनी, रणक्षेत्रा, समझौता कांफ्रेंस
अर्थात् जीवन का कोई भाग नैतिकता के व्यापक प्रभाव-
क्षेत्र से बच नहीं पाता। हर जगह और
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह नैतिकता को शासक
बनाता है और उसका प्रयास यह है कि जीवन के
मामलों की लगाम इच्छाओं, स्वार्थों और परिस्थितियों के
बजाय नैतिकता के हाथ में हो।
तीसरी विशेषता यह है कि वह
(इस्लाम) इन्सानियत से एक ऐसी जीवन-
व्यवस्था की मांग करता है जो अच्छाई पर आधारित
हो और बुराई से पाक हो। उसका आह्नान यही है
कि जिन भलाइयों को मानवता के स्वभाव ने सदा भला जाना है आओ
उन्हें स्थापित करें और फैलाएँ तथा जिन बुराइयों को मानवता सदा बुरा
समझती रही है, आओ, उन्हें दबाएँ
और मिटाएँ। इस आह्नान को जिन्होंने स्वीकार किया
उन्हें इकट्ठा करके इस्लाम ने एक उम्मत (समुदाय) बनाई जिसका
नाम मुस्लिम था, जिसका एकमात्र उद्देश्य यही था कि
वह ‘भलाई’ को जारी करे और ‘बुराई’ को दबाने और
मिटाने के लिए संगठित प्रयास करे।
स्रोत साभार: इस्लामधर्म.ऑर्ग....ye post
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Muslman hone ke kuch fayde bata rahe. मुसलमान होने का लाभ (Benefits of
Becoming a Muslim)

Muslman hone ke kuch fayde bata rahe. मुसलमान होने का लाभ (Benefits of Becoming a Muslim)

आज मैं आपको मुसलमान होने के फायदे बताऊंगा. अगर कोई
मुसलमान है तो उसे क्या क्या फायदे है या कोई अगर मुसलमान
बनता है तो उसके उसे क्या क्या फायदे होंगे? जहाँ तक इस
क़ायनात (सृष्टि) के मालिक (जिसका वास्तविक नाम 'अल्लाह' है)
का संबंध है, आप उसे उसकी बहुत सी
निशानियों के ज़रिये आसानी से पहचान सकते हैं, आप
उसे अपने नजदीक  कर सकते हैं,  उसके नामों के ज़रिये
अपने और उसके रिश्ते को समझ सकते हैं और आप उसे दिन में
२४ घंटे और पूरे साल अपनी नमाजों के ज़रिये
अपनी बात कह सकते हैं. आप इस दुनिया में क्यूँ
आये? आपका इस दुनिया में पैदा होने का मकसद क्या है? सबसे
बड़ी बात है कि आप के पास जवाब होंगे उन सब शब्दों
के जिन्हें क्यूँ, कैसे, कब, कहाँ, क्या और दीगर
दार्शनिक और तत्वज्ञान सम्बन्धी सवालों के.
सबसे पहला फ़ायदा तो यह है कि आपकी
वफ़ादारी, ईमानदारी, सच्चाई, आज्ञापालन,
आज्ञापरता केवल आपके मालिक (creator) के लिए
ही होंगी. आप इस दुनिया में
अपनी उक्त विशेषताओं से पहचाने जायेंगे. आपका
संघर्ष चाहे वो आपके बॉस से हो, आपकी
नौकरी या पेशे से हो, आपके निज़ाम (गवर्नमेंट) से
हो, आपके सामाजिक तंत्र से हो, सब के सब आप के उस मालिक
(अल्लाह) से सम्बद्ध होगा, आप बेशक (undoubtedly)
अपने मालिक (अल्लाह) पर विश्वास करेंगे. आप
किसी अन्य का अनुसरण करने के बजाये उस एक
ईश्वर के नियमों का अनुसरण करेंगे.
दूसरा फ़ायदा यह होगा कि आप अपने आप में, अपने परिवार
में, इस दुनिया के लोगों में, वातावरण में, और इस दुनिया में शांति का,
अनुरूपता का, अक्षोभ और खुशियों और आनंद का संचार करेंगे.
तीसरा फ़ायदा यह होगा कि आपके
शरीर पर, मष्तिष्क पर, तंत्रिका तंत्र पर कोई फालतू का
जोर और टेंशन नहीं रहती है क्यूंकि
आप दिन में पांच बार वुज़ुः (मुहं, हाँथ और पैर धोना) करके नमाज़
पढ़ते है और अपने मालिक (अल्लाह) से दुआ करते हैं. नमाज़
में जब आप सज़दा करते हैं तो अपना माथा ज़मीन पर
रखते हैं इस प्रक्रिया में आप अपनी सारी
टेंशन और अपने मस्तिष्क के अतिरिक्त बिना मतलब के भार को
ज़मींदोज़ (ख़त्म) कर देते हैं. नमाज़ पढने से आप
अपनी तमाम चिंताओं के हल के लिए अल्लाह दुआ
करते है और चिंतामुक्त होते हैं . यहीं
नहीं नमाज़ के ज़रिये आप के शरीर के
तमाम मनोरोग भी दूर हो जाते हैं. जिस तरह से अगर
आप कहीं जा रहे हों रास्ते में अगर आपको जगह-
जगह पर नहरें मिले और आप उसमें हर बार नहा लें तो
किन्हीं दो नहरों के बीच आपके
शरीर पर जितनी भी धुल या
गन्दगी जमेगी/हो जायेगी
वह धुलती जायेगी. ठीक
उसी तरह से आप अगर दिन में पांच मर्तबा नमाज़
पढेंगे तो दो नमाजों के बीच के गुनाह ख़त्म हो होते
जायेंगे और आपका मन शांत रहेगा वह सब काम नहीं
करेगा जो आपके मालिक के नियमों विरुद्ध होगा.
चौथा फ़ायदा यह होगा कि आपका व्यक्तित्व आकर्षक
(कांतिमय) बन जायेगा . आप अनुकूल और मित्रवत रहेंगे. आप
ग़लत काम से परहेज़ करेंगे, आप शराब नहीं
पीयेंगे, ड्रग्स नहीं लेंगे,
अश्लील हरक़त नहीं करेंगे, व्यभिचार
नहीं करेंगे.
पांचवां  फ़ायेदा यह है कि साल में एक महीने रोज़ा
रखने के उपरांत आप अपने पर आत्म-नियंत्रण, आत्मानुशासन,
आत्म-शिक्षा, आत्म-अनुपालन के दूर सीख लेते हैं
. आप बेशक अपनी सेहत, व्यक्तित्व, चरित्र और
स्वाभाव को सुधार लेते हैं.
छठवां फ़ायदा यह है कि हवस (lust), स्वार्थपरायणता
(selfishness), इच्छाओं (desires), लालच (greed),
अंहकार (ego), दम्भ (conceitedness) आदि दुर्गुणों से दूर
रहते है और इन दुर्गुणों पर नियंत्रण रख पाते हैं.
सातवां फ़ायेदा है कि आप आर्थिक, जैविक, मानसिक,
आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक आदि क्षेत्र के
सभी प्रकार के exploitations रोकने में सक्षम होते
हैं. आप लोगों की आज़ादी के समर्थक
होंगे, उन्हें बोलने की आज़ादी के, इबादत
की आज़ादी के, समतुल्य संबंधों के
पक्षधर होंगे, निरपेक्षता (चाहे वो धार्मिक ही क्यूँ
न हो) के पक्षधर होंगे . आप नेता होंगे और लोगों में शांति,
अक्षोभ (प्रशांति) और खुशियों का नेतृत्व करेंगे.
आठवां  फ़ायेदा यह कि इस्लाम स्वीकार करने के
उपरांत आप समाज की बुराईयों से दूर रहेंगे और
अच्छाईयों अमल करेंगे. आप मुसलमान बनने के बाद समाज
की बुराईयों को बढ़ने से रोकने में मदद करेंगे. जैसे-
कर्त्तव्यच्युति, अपचार. पापचरित्र, बाल-अपराध, घरेलु हिंसा,
कौटुम्बिक व्यभिचार (सगे-संबंधी के साथ यौन
सम्पर्क), समलिंगकामुकता, स्वच्छन्द संभोग, विवाहपूर्व यौन-
सम्बन्ध, विवाहेत्तर संबंधों आदि समस्त दोषों से दूर रहेंगे .
नौवां फ़ायेदा यह है कि आप समाज में उन बिमारियों से दूर कम
कर सकेंगे जो ला-इलाज हैं मसलन- AIDS आदि
दसवां फ़ायेदा यह होगा कि जब आपकी मृत्यु
होगी, आप शांति से मृत्यु को प्राप्त होंगे, कब्र
की और उसके बाद की
ज़िन्दगी भी खुशमय होगी,
अविनाशी सुख के भोगी होंगे,
आपकी मौत पर आपका साथ पाने के लिए अप्साए
लालायित होंगी, वे स्वर्ग (जन्नत) में
आपकी मुक़र्रर (आरक्षित) जगह तक ले
जाएँगी, आखिरी दिन (क़यामत के दिन,
हिसाब-किताब के दिन) आप सारे नबियों, पैगम्बरों (ईश्वर के
संदेष्टाओं) जैसे- हज़रत नूह (अ.स.), हज़रत
इब्राहीम (अ.स.), हज़रत मूसा (अ.स.), हज़रत
ईसा (अ.स.) और हज़रत मुहम्मद (अल्लाह की
उन पर शांति हो) को देख सकेंगे और उनसे मुलाक़ात कर सकेंगे.
आप अपने सरे दोस्तों, रिश्तेदारों, गर के फर्दों और महबूब को देख
सकेंगे. आप जन्नत में अनंत जीवन
व्यतीत करेंगे. (अल्लाह बेहतर जानने वाला है)
जो लाभ या फ़ाएदे और अन्य लाभ जो यहाँ अंकित नहीं
कर सका, को आप दुनिया भर की दौलत देकर
भी नहीं ख़रीद सकते. तो
क्या आप राज़ी है इस दावा को
स्वीकार करने के लिए.. ..!???

Ye post hamarianjuman.blogspot.com

Se liya gaya hai

....Deshwali..ji ka comment..
सच है की जिनकी सोच
इस्लाम के बारे मैं गंदी है
वो हमेशा अपनी गंदी सोच का
ही प्रमाण देगा ।।
इनका मुद्दा हमेशा से इस्लाम को नीचा
दिखाना और
ईस्लाम का नेगेटिव प्रमोशन करना ही है

दुनिया जानती है की मुसलमानों
के दिलो में
पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) की क्या
इज़्ज़त क्या रुतबा है
जिनको खुदा ने सारी इंसानियत के लिए शांति
और
अमन का दूत बनाकर कर भेजा था उनकी
शान में
बार बार गुस्ताखी करना किस
बहादुरी का नाम..
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) के खिलाफ़ की
गई टिप्पणी देश का
वातावरण बिगाड़ने का प्रयास है .जो गन्दी
मानसिकता दर्शाती है
अभिव्यक्ति की आज़ादी
की बात करने वालो ।।
आज़ादी का ये मतलब नही के
किसी भी धर्म की
आस्था
को ठेंस पहुंचाई जाए आज़ादी तो यह है
के सच को सच
लिखा जाए बोला जाए।
अगर दम है तो इजराइल के ज़ुल्मो की
दास्ताँ बारे में बोलो ।।
अगर दम है तो मज़लूमो की
चीख पुकार के बारे में आवाज उठाओ।।
अगर शर्म है तो सीरिया के हालात के बारे
में बोलो ।।
अगर इंसानियत है तो अमरीका के बर्बरता
इराक़ पर बोलो ।।
अगर दिल है तो फलस्तीन
की माओं का दर्द सुनाओ ।।
अगर दर्द है तो गुजरात आसाम के किस्से ब्यान करो
।।
यह है अभिव्यक्ति की
आज़ादी..
किसी धर्म के बारे मैं गलत भाषा इस्तेमाल
करना नहीं

लेकिन यह जो दोहरी मानसिकता के लोग
है वो एक तरफ़ा ही बोलते लिखते थे
और बोलते लिखते रहेंगे लेकिन सच कभी
नही बोलेंगे ।।

Facebook page kaise banaye kuch hi minto me

aaj hm janege facebook page kaise banate hai
aur kyu banaye aur iske fade kya hai agar aap ka blog ya site hai ya fir aap ka businasse hai
aur aap chahte hai aap apne  prodecat ko vell karna ya fir blog ho us par traific aaye to facebook page se achcha koi vikalp nhi hoga
and  bahot hi simpal setp hai kuch hi minto me aap ka facebook page ban kar taiyar ho jayega ..



Agar aapke pass Facebook id nhi hai to  yaha  
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Aaiye jante hai setp by setp
Sabse pahle aap facebook me logine kare



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niche. create page . ka option dikhega aap upe click kare aap niche pic me dekh sakte hai

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(1) choose a name your page .

yaha pe aap jo page name rakhna chate hai wo name typ kare
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Yaha aap jis bare me page bana rahe wo chune
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Yaha bhi aap ko chuna hai aap apne page me kis bare me post karenge
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Ab is page  me aap ko ek box dikhega
(1) is box me kis bare me ye page bana rahe wo typ karna jaise ki aap ke page par kya kya milega
(2) enter website ki jagh aapko apni blog ya web site ka name typ kar sakte hai ya fir khali bhi chod sakte hai
() yaha par aapko tik lagana hai ki aap real page bana rahe hai ya aise hi . usi hisab se tik kar sakte
Hai ab aap
(3)save info pe click kar de
Agar aapko yaha koi bhi enfometion nhi deni hai to aap
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Ab aap yaha site ya blog hai to





 (1) aap yaha apne blog ya site ka address dal sakte hai
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Lijiye aapka facebook page ban kar taiyar hai...



Dost agar page banae me koi problame aa rahi hai to aap comment kar ke puch sakte hai hame aapka reply dene khushi hogo...thanks



Not::fr  ye page  maine opera braowsar me banaya hai
Agar aap kisi aur brawsar us karte hai to thoda sa defrrent hoga




Ye kaisi mohabbat hai

Ye kaisi mohabbat hai

ये कहानी है राज की है जो
सीधा सादा लड़का है।।।पढ़ाई में फस्ट हर खेल में
फस्ट मान लो की हर काम में फास्ट था राज"घर
की कुछ परेशानी को देखते हुवे राज
अपनी पढ़ाई छोड़ देता है और अपने परिवार
की तंगहाली को दूर करने के लिए
नोकरी करने लगता है,बहोत ही
मेहनत एन्ड ईमानदारी से अपने काम को करता है
ऑफिस में सब उसकी लगन ईमानदारी
की की प्रसंसा करते रहते है,


सका एक ही सपना था की खुद
की अपनी कम्पनी हो वो
अपनी मेहनत के बल पर कामयाबी
की राह पर निकल पड़ा धीरे
धीरे राज ने अपनी खुद की
छोटी सी कम्पनी सुरु
की और कम्पनी भी चल
पड़ी"अब उसके परिवार की हालत पहले
से बहोत अच्छी हो गई।।उधर राज के माँ बाप
उसकी शादी पर जो देने लगे पर राज
अभी शादी नही करना चाहता
था माँ बाप की ज़िद्द के आगे राज को झुकना
ही पड़ा राज शादी के लिए तैयार तो हुवा
पर उसकी इक शर्त थी की
जब तक वो अपनी कम्पनी
की एक और (शाखा )नही खोल लेता
शादी नही करेगा ।। राज के माँ बाप
भी राजी हो जाते है।और राज का रिश्ता
देखना। सुरु कर देते है एक रिश्ता पसन्द भी हो जाता
है""
#निशा# के साथ,धीरे धीरे वक़्त गुजरता
है । राज सोचता है क्यों न निशा से फ़ोन पे बात कर ले। राज
अपनी सिस्टर के जरिये निशा को अपना मोबाइल न0 देता
है ,पर निशा फ़ोन नही करती । राज निशा
के फ़ोन का इन्तेजार हर वक़्त करता रहता है। 2
महीना गुज़र गया निशा को न0 दिए ।राज को एक दिन
अनजान न0 से फ़ोन आता है राज ने फ़ोन उठाया ,दूसरी
तरफ निशा होती है 10 मिनट की बात में
राज के दिल की बेचैनी बड़
जाती है ।पहले बात नही हुई वक़्त
गुजर जाता था।अब वक़्त कटना मुश्किल लगने लगा
यही हाल निशा का भी होता है वो घर में
किसी सोच में गुम थी की
तभी उसकी बेस्ट फ्रेंड #प्रिया#
आती है जो इक आज़ाद ख़याल की चंचल
लड़की है। निशा को उदास देख कर प्रिया उससे
पूछती है की कहा खोई है
मेरी प्यारी निशा ।निशा उसको
बताती है की तेरे होने वाले
जीजा की याद आ रही है
बात करने का दिल करता है ।निशा उसको बताती
की किस तरह राज को एक बार
दीदी के मोबाइल से बात की
है तब से उनसे बात करने का दिल करता है। मैंने उन्हें मना
भी किया है की फ़ोन ना करे ये न0
किसी और का है।अब दिल है की मानता
नही क्या करू तुही बता। प्रिया निशा को
मोबाइल देती है फ़ोन करने के लिए निशा फ़ोन
करती है ।राज काम में बिजी होने के
कारन फ़ोन नही उठाता 3+4 कॉल करने के बाद जब
फ़ोन नही उठता तो निशा प्रिया को मोबाइल वापस दे
देती है"
राज जब अपने काम से फ्री होता है मोबाइल पर
3+4 मिस कॉल देखता है तो कॉल बैक करता है फ़ोन प्रिया
उठती है । पहले प्रिया तो सरारत करती
है अनजान बन कर बात करती है प्रिया उसको
बताती है की वो निशा की
फ्रेंड प्रिया है फ़ोन निशा ने किया था लेकिन तब आपने फ़ोन उठाया
नही ।अब मैं घर वापस आ आ गई हूँ राज दिल
ही दिल अपनी किस्मत को कोसता है
और फ़ोन कट हो जाता है ।प्रिया को राज का बात करने का अंदाज़
बहोत भाता है ।प्रिया राज को फिर फ़ोन करती है ।
धीरे धीरे दोनों बात करने लगते है प्रिया
दिल ही दिल राज को पसन्द करने लगती
है इन सभी बातों से निशा अनजान होती
है उसको किसी बात का पता नही होता।
राज प्रिया को सिर्फ एक जरिया मानता है निशा से बात करने के लिए।
प्रिया राज को मिलने के कहती है बार बार कहने पर
राज राजी हो जाता है । दोनों मिलते है ,मॉल में जाते
है फिर प्रिया के कहने पर मूवी (फ़िल्म) देखने जाते
है प्रिया अपने दिल की बात राज से
कहती है और (i LOVE YOU) मैं तुमसे प्यार
करती हूँ।बोलती है राज मना कर देता है
और कहता है की निशा से तुम्हारी
शिकायात करूँगा । मूवी(फ़िल्म)बीच में छोड़
कर घर आ जाता है....प्रिया राज को फ़ोन करती है
और सॉरी(sorry)बोलती है राज (it,s
ok)ओके बोल कर बात ख़त्म कर देता है प्रिया उसको मिल कर
सॉरी (sorry)बोलने की ज़िद्द
करती है राज राज़ी हो हो जाता है दोनों
फिर मिलते है पर प्रिया के दिल में अपने ठुकराये जाने का मलाल था
और वो बदले की आग में जल रही
थी। वो एक चल चलती है....दोनों मिलते
है प्रिया सॉरी(sorry)बोलती है राज
उससे कहता है की इन सब बातो को छोडो""
और बात इधर उधर की करने लगता है प्रिया उसको
लेकर लॉन्ग ड्राइव पर ले जाती है रासते में
गाड़ी बिगड़ जाती है प्रिया
कहती है की गाड़ी ख़राब
हो गई है दोनों जब गाड़ी से निकलते है इतने में एक
तेज़ रफ़्तार गाड़ी आती है राज प्रिया को
बचाने के चक्कर में गाड़ी के निचे आ जाता है और
वही पे दम तोड़ देता है। ये एक हादसा
नही था ये एक बदले की आग
थी जो प्रिया के दिल में भड़क रही
थी प्रिया ने ही ये हादसा कराया था प्रिया ने
सोचा कुछ और था हुवा कुछ और वो खुद को राज के बाँहों में रह
कर दम तोड़ना चाहती थी पर राज खुद
उसकी बाँहों में दम तोड़ चूका था"""प्रिया
जिंदगी भर पस्तावेे की आग में
जलती रही वो जब भी निशा
को जो देखती उसकी यादें ताज़ा हो
जाती । एक ऐसे गुनाह की सजा उसको
मिल रही थी जिसका उसको गुमान
भी नही था सोचा कुछ हुवा कुछ .....ये
एक राज़ ऐसा था की किसी को
इसकी जानकारी नही
थी जब तक है इस आग में जलती
रहेगी ,,,,,,
Writer..mr.wasim ansari